बहते झरने की बौछार ने कहा
छोटी हूँ मैं पर नवजीवन हूँ लाती ।
कुछ अंश देती हूँ संसार को
और धरती पहुंच धारा हूँ बन जाती ॥
जीवन प्रदान दायित्व है मेरा
चंद बूंदों से सही , फिर भी हूँ बाँट रही ।
आँखें मूँद धरती की गोद में हूँ समाती
कण कण से अपने सरलता को हूँ छांट रही ॥
मनुष्य , फिर तुम क्यों हो थमे हुए
सक्षम हो , श्रेष्ठ जीवन है प्राप्त किया ।
अहम और स्वयं में हो क्यों फसे हुए
जब सृष्ठि ने है तुमको प्रताप दिया ॥
तुम भी हो समय की एक धारा
जीवन आया है , फिर लौट जायेगा ।
क्षण क्षण से अपने करो कुछ उद्धार
आने वाला हर जीवन फल जिसका पायेगा ॥
मैं तो धारा हूँ , नदिया बन दायित्व निभायूँगी
तुमने तो एक ही जीवन पाया है ।
आँखें खोलो , माया छोड़ो , नवजीवन करो प्रदान
मनुष्य , इस कारणवष तू यहाँ आया है ॥
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